Friday, September 17, 2010

मनोरंजन के हर तत्व से लबरेज है दबंग

दबंग के रूप में एक अंतराल के बाद मनोरंजन के हर तत्व से भरपूर मसाला फिल्म आई है। दबंग में कभी हंसने तो कभी रोने के लिए विवश कर देने वाली रोचक पारिवारिक कहानी, सांसें थमा देने वाला दमदार एक्शन, मजेदार रोमांस, नया स्टाइल एवं मधुर गीत-संगीत है। अभिनव सिंह कश्यप निर्देशित फिल्म दबंग हिंदी भाषा में बनी हिंदी प्रदेश की कहानी है।
चुलबुल दो साल का था, जब उसके पिता का देहांत हो जाता है। चुलबुल की मां प्रजापति पांडे से दूसरी शादी करती है। चुलबुल को ऐसा लगता है कि प्रजापति पांडे उससे प्यार नहीं करते। वे अपने बेटे मक्खी को ज्यादा प्यार करते हैं। बचपन में चुलबुल के मन में सौतेले पिता के प्रति नफरत भर जाती है। दबंग उत्तर प्रदेश के लालगंज की कहानी है। चुलबुल बड़ा होकर थानेदार बनता है। चुलबुल निर्भीक, निडर, साहसी और दबंग है। वह कानून के हिसाब से न्याय नहीं करता। चुलबुल को राजो से पहली नजर में प्यार होता है तो वह निर्भीकता से उसके समक्ष शादी का प्रस्ताव रखता है। चुलबुल बैंक के लुटेरों को खुद लूटता है। चुलबुल भ्रष्ट अधिकारी है। चुलबुल जब स्थानीय उभरते नेता छेदी सिंह के गैर कानूनी काम में हस्तक्षेप करता है तो वह आग-बबूला हो जाता है। चुलबुल पांडे और उसके मंदबुद्धि छोटे भाई मक्खी के बीच के फर्क का फायदा छेदी सिंह उठाता है। वह परिवार की लड़ाई में राजनीति करता है। मक्खी का वह अपने राजनैतिक लाभ के लिए गलत इस्तेमाल करता है।
दबंग में लंबे समय के बाद चुलबुल पांडे के रूप में एक अजीज हीरो और छेदी सिंह के रूप में एक बेजोड़ खलनायक नजर आता है। दबंग का मुख्य आकर्षण सलमान खान हैं। चुलबुल पांडे के नटखट एवं दमदार चरित्र में वे जंचते हैं। सोनू सूद के कॅरियर का यादगार चरित्र है छेदी सिंह। उभरते नेता छेदी सिंह की कुटिलता और छद्म को सोनू ने सही तरीके से अभिव्यक्त किया है।
सोनाक्षी सिन्हा की तारीफ करनी चाहिए कि मुंबई में पली-बढ़ी होने के बावजूद वे गांव की राजो के किरदार की बारीकियों को पकड़ने और उसे अभिव्यक्त करने में सफल रही हैं। मक्खी के किरदार में अरबाज खान एवं दंपत्ति के रूप में विनोद खन्ना और डिंपल कपाडि़या अच्छे हैं। माही गिल निर्मला की छोटी भूमिका में असर नहीं छोड़ पातीं। दबंग के चरित्रों की भाषा, वेशभूषा, रहन-सहन, घर के अंदर की सजावट एवं प्रॉपर्टी में वास्तविकता है। अभिनव सिंह कश्यप पहली फिल्म से एक दक्ष निर्देशक के रूप में उभरे हैं। अभिनव सिंह कश्यप और दिलीप शुक्ला लिखित दबंग की एक खासियत संवाद हैं। दबंग में एक बात स्पष्ट नहीं होती कि चुलबुल पांडे तो समस्तीपुर के हैं, लेकिन बाकी पात्र छेदी सिंह, राजो, निर्मला आदि कहां से हैं?

Sunday, March 14, 2010

द्वारकाधीश अब तू ही रक्षा करना

-शेख रईस अहमद-
जब भी मैं इस बात पर सोचता हूं तो मेरा मस्तिष्क मंडल कुछ और ही सोचने लग जाता है। हमारे देश में कुख्यात अपराधियों या यूं कहे पहुंच वाले लोगों के लिए आज भी प्रशासन उसी तरह गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है जैसा स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले हर हिंदुस्तानी था। सांई भक्ति की आड़ में सैक्स रेकेट चलाने वाले इच्छाधारी बाबा उर्फ शिवमूर्त द्विवेद्वी को दिल्ली पुलिस एक बार फिर से चित्रकूट तो ले गई लेकिन यहां पर कुछ ऐसा हुआ जिससे पुलिस प्रशासन की जांच संदेह के घेरे में आई गई। इच्छाधारी बाबा यूपी के चित्रकूट में जब पुलिस के साथ पहुंचा तो यहां पर लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा। यह हुजूम किसी अपराधी को देखने के लिए नहीं बल्कि अपने गुरू के दर्शन के लिए एकत्रित हुई थी। सबसे बड़ी बात यह है कि यहां पर बाबा ने पुलिस के साथ लोगों का मजमा जमाया। पुलिस की मौजूदगी में बड़ी संख्या में लोग आकर बाबा के पैर छूकर आर्शीवाद ले रहे थे। यह सिलसिला यहां ही नहीं रूका, लोगों से मिलने के बाद बबा को पुलिसवालों ने बाहर से चाय मंगाकर पिलाई और खुद पिया। चाय पीते समय बाबा इस तरह से चर्चा में मशगूल थे कि लग ही नहीं रहा था कि पुलिसवालों के साथ कोई अपराधी बैठा है। विडम्बना की बात है कि हमारी पुलिस बस ऐसी महत्वपूर्ण जगहों पर ही चूक क्यों करती हैं। अपराधी चाहे कोई हो उसका न कोई धर्म होता है और न ही कोई ईमान। उसका तो सिर्फ एक ही मकसद होता है जैसे तैसे अपने द्वारा किसी अपराध को अंजाम देना। अब सिक्के के दूसरे पहलू पर भी जरा गौर फरमाए। तथाकथित संतों की बदनामी को देखते हुए अयोध्या के संत महंत मठ मंदिरों में अकेली महिलाओं को न आने की सलाह दे रहे हैं। रामजन्म भूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्य गोपालदास का मानना है कि महिलाओं को मंदिरों और मठों में भी अकेले जाने की इजाजत नहीं होनी चाहिए। महंत की सलाह है कि महिलाएं जब भी मंदिरों या मठों में जाए अपने परिवार वालों को साथ लेकर जाए। मेरा कहने का मतलब है कि हम एक तरफ तो अपराधी को वीआईपी ट्रीटमेंट दे रहे हैं और दूसरी तरफ श्रद्धालु महिलाओं पर इस तरह की पाबंदी की बात कह रहे हैं। मंदिर हो मस्जिद या फिर गुरूद्वारा-चर्च। ये सभी ऐसे स्थान है जहां विभिन्न धर्मो के मानने वाले पूजा, इबादत, प्रे या अरदास करते हैं अपने प्रभू से। ऐसे में हमने जरूर वैज्ञानिक तरक्की तो कर ली लेकिन सोच को विकसित नहीं कर पाए। वरना ये होता कि मंदिरों में महिलाओं को अकेली आने जाने की सलाह की बजाए उन पाखंडी ढोंगी साधु महात्माओं को सबक सीखाने की बात कही जाती। इन तथाकथित साधु महात्माओं के लिए भी और कड़े कदम उठाने की जरूरत है।

Friday, March 12, 2010

बाबा ये कैसे पाखंडी बाबा

- शेख रईस अहमद-
आज देश में पाखंडी व ढोंगी बाबाओं का इस कदर जमावड़ा हो गया है कि जिधर देखो उधर पाखंडी बाबाओं के बारे में सुनने को मिल रहा है। कोई बाबा सैक्सी फिल्में बना रहे है तो कोई पूरा सैक्स रेकेट ही चला रहा है। कहीं ये देखने को आ रहा है कि अपनी उम्र से भी आधी उम्र की लड़कियों को ये बाबा अपने प्रेमजाल में फंसा रहे हैं। हमारे घर पर धार्मिक टीवी चैनल नहीं देखे जाते। उसका कारण यह है कि कई बाबा जो टीवी पर नजर आते हैं, न तो ज्ञानी हैं और न ही सम्मान लायक। ज्यादातर तो तृतीय श्रेणी गवैये हैं। कभी राम भजन गा दिया कभी कृष्णा लीला। भक्त लोग फौरन बलिहारी, झूमने लगे। माहौल ही ऐसा बना दिया है। दस-बीस चेला-चेली दौड़ रहे हैं, फूलों से शानदार सजावट कर दी गई है। जनता मदहोश है, उसे लगता है कि हम पुण्य कमा रहे हैं। एक बाबा को प्रवचन देते सुना, कहता है मैंने एक स्वप्न देखा, सपना, ड्रीम, नाइटमेयर। मैं चौका, नाइटमेअर मतलब तो दुस्वप्न होता है। लेकिन पब्लिक की आंखें बंद हैं। बाबा बता रहा है, भक्त आत्मसात कर रहे हैं। राधे-राधे।लेकिन असली कमाई तो सिंहासन पर बैठा बाबा कर रहा है। नए जमाने के बाबा के क्या कहने। बैठने के लिए भव्य सिंहासन चाहिए। घूमने के लिए लंबी गाड़ी और ए-लीग बाबा है तो हेलिकॉप्टर से कम में काम नहीं चलता। आश्रम तो ऐसे बनवा रखे हैं कि मुगल बादशाह भी शर्म के मारे जमीन में गड़ जाएं। एक बापू आसाराम हैं, दिल्ली के बीचोबीच रिज फॉरेस्ट में ही आश्रम है उनका। यह रिज फॉरेस्ट दिल्ली के फेफड़ों का काम करता है। बाबा लोगों ने उसे भी नहीं बख्शा। जंगल में मंगल। ईश्वर की मर्जी? हर तरफ से खबर आ रही है फलां बाबा के लोगों ने यहां जमीन पर कब्जा कर लिया, वहां अवैध रूप से आश्रम बना डाला। बाबा हैं या भूमाफिया?पिछले दिनों प्रतापगढ़ में कृपालु महाराज के आश्रम में भगदड़ मची। आश्रम के लोग कह रहे हैं कि-यह जो इतने लोग मरे इसमें हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं, ईश्वर की मर्जी है। बाबा जी तो ईश्वर के काफी करीब हैं। दिन-रात ईश्वर से साक्षात्कार करते हैं, साक्षात प्रभु के दर्शन करते हैं। तो फिर ईश्वर ने उन्हें क्यों नहीं बताया कि बाबा, कल तुम्हारे आश्रम में भगदड़ मचेगी, लोग मरेंगे? मत करो श्राद्ध, या करो भी तो चुपचाप, अकेले। अपने करीबियों को याद करने के लिए मजमा लगाने की क्या जरूरत? यह कैसा बाबा है जिसे यह नहीं पता कि थोड़ी देर में यहां 64 महिलाएं और बच्चे कुचल कर मरने वाले हैं? ईश्वर के करीब हो तो ईश्वर की मर्जी भी पता होगी! मैं तो कहता हूं कि सबके दाता भगवान द्वारकाधीश हैं तो इन भगवान के दलालों के चक्कर में क्यों पड़ना?बीते जमाने में भी बाबा थे, ज्ञानी थे। फक्कड़ कबीर को दोहे सुनाने के लिए सिंहासन की जरूरत नहीं पड़ी। गुरू नानक ने भव्य आश्रम नहीं बनवाए। माया के मोह में लिपटे आजकल के बाबा, काहे के बाबा? ये बाबा क्या किसी को सच दिखाएंगे? उनकी तो खुद की आंखों पर ऐश-ओ-आराम, सेक्स और ताकत का पर्दा पड़ा है। भोले-भाले भक्तों से कहते हैं, सेक्स से दूर रहो, खुद सेक्स स्कैंडल में पकड़े जाते हैं। और इस बार तो हद ही हो गई। एक बाबा सेक्स रैकेट ही चलाने लगा। मुझे इस बात से तकलीफ नहीं कि बाबा अभी शरीर सुख या आलीशान जीवन के मोह से दूर नहीं हो पाए। यह तो मानव की सहज वृत्ति है। लेकिन भगवा पहनकर तो बेवकूफ बनाने वाली बात ही कही जाएगी।मुझे लगता है कि इन बनतू बाबाओं से ओशो ही अच्छे थे। कुछ ओरिजिनल बात तो करते थे। सेक्स के बारे में खुलकर बात करते थे, पाखंड नहीं। आजकल तो मैंने देखा कि कई बाबाओं ने लहजा भी ओशो जैसा ही अपना लिया है। वैसे ही रुक-रुककर, धीमी आवाज में बोलते हैं। और तो और स को श और श को स भी कहते हैं।लेकिन बाबा को बाबा बनाने में गलती लोगों की अंधभक्ति की भी है। सोचने की बात है कि जो बाबा अपनी ही भलाई में लगा हुआ है वह तुम्हारा भला कैसे कर सकता है? जो बाबा खुद लालच से उबर नहीं पाया वह तुमको क्या सिखा सकता है? जो बाबा आम आदमी और खास आदमी में फर्क करता है, वह क्या भेद मिटाएगा? लेकिन मूढ़मति लोगों को तर्क नहीं समझ आते।यहां एक बात साफ कर दूं कि सारे बाबा चोट्टे हों, ऐसा भी नहीं है। स्वामी रामदेव योग सिखाते हैं, लोगों को इसका फायदा होता है। उनकी दिव्य फार्मेसी में बनने वाले शैंपू, टूथब्रश, टूथपेस्ट और कई दूसरी चीजें बाजार में उपलब्ध दूसरे ब्रैंड्स के मुकाबले काफी सस्ते हैं। श्री श्री रविशंकर सुदर्शन क्रिया सिखाते हैं, मेरे कई परिचित बताते हैं कि उन्हें इससे काफी फायदा हुआ है। इसलिए कहता हूं कि बाजार में बहुत बाबा बिक रहे हैं, खरीदारी में सावधानी की जरूरत है। क्योंकि बाबा तो नेता से भी खतरनाक हैं। नेता नालायक हो तो वोट की ताकत से उसे भगा सकते हो लेकिन बाबा का क्या बिगाड़ोगे?दसवीं में अज्ञेय जी एक कविता पढ़ी थी जो मुझे बहुत पसंद है, थोड़े बदलाव के साथ यहां लिख रहा हूं -बाबा, तुम सूअर तो नहीं हो,नाले में भी नहीं रहते।एक बात पूछूं, उत्तर दोगे?फिर इतना कीचड़ कहां लपेटा,बदबू कहां से लाए? आई होप, किसी सूअर को बाबा से तुलना बुरी न लगे। भले जानवर होते हैं बेचारे। सिंहासन नहीं मांगते, लग्जरी कार, आश्रम नहीं चाहते। गंदगी की सफाई करते हैं। काश कोई वराह अवतार जन्म लेता जो समाज से बाबा के रूप में फैली गंदगी को साफ करता। अब हम लोगों को जरूरत है तो बस इन पाखंडी बाबाओं को सबक सीखाने की।

Tuesday, December 1, 2009

कॉलगर्ल की संतुष्टि या पैसे की भूख

दुनिया में रूपयों की भूख इतनी बढ़ गई है जिसकी कोई इंतेहा नहीं है। वेस्टर्न कल्चर के हॉवी होने के साथ साथ हमारे देश में भी रुपए का महत्व बढ़ा है। पहले जहां बचपन में चार आने में ढेर सारी चीजे आ जाती थी वहीं अब पांच रूपयों में भी कुछ नहीं होता है। पुराने जमाने में नाना-नानी और दादा-दादी से सस्ती चीजों की किस्से कहानियां सब लोग सुना करते थे। उस समय घर के बड़े बुजुर्गो द्वारा बताई बाते अब याद आती है। स्मृति के पटल पर आज फिर नाना-नानी और दादा- दादी के चेहरे मेरे मन मस्तिष्क में घुमते नजर आ रहे है। अब तो जमाने के बदलाव के साथ लोग अपने पुराने कमाई के धंधों में वापस हाथ आजमाने में व्यस्त नजर आ रहे है। बहुत कम लोगों को अपने पुराने काम में सफलता भी मिली है। उसकी एक ही वजह है महंगाई के दंश के साथ हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का कड़ा मुकाबला। मैं आपको एक ऐसी महिला की आप बीती बता रहा हूं जिसने अपनी जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही सबसे पहले उसको कॉलगर्ल बनना पड़ा। एक समय ऐसा भी आया जब उस कॉलगर्ल को एक घंटे के तीन सौ पाउंड रुपए तक मिलने लगे। लेकिन वही कॉलगर्ल जब एक बड़े देश की महिला वैज्ञानिक के रूप में सबके सामने आई और उसने यह स्वीकार किया कि वो पहले कॉलगर्ल थी और कॉलगर्ल का पेशा संतुष्टि देता था। जी हां मैं बात कर रहा हूं 35 साल की ब्रिटेन की मशहूर महिला वैज्ञानिक बेले डे जूर की। जिसने द टाइम्स अखबार के हवाले से यह स्वीकार किया महिला वैज्ञानिक से अच्छा था वो कॉलगर्ल का पेशा। अब सोचने की बात यह है कि जब किसी देश की महिला वैज्ञानिक सिर्फ और सिर्फ रुपयो-पैसों की खातिर अपने पेशे से परेशान है तो इसे रुपयों की भूख ही कहेंगे। हमारे देश भारत में आज रुपयों-पैसों के दम पर सब कुछ हो रहा है। पैसों के दम पर वो सब कुछ हो रहा है जो केवल केवल हैवानियत के दरिंदे ही किया करते है।
हर जगह रुपयों की भूख?
पुराने जमाने में लोग कहते थे कि भारत गांवों में बसता है। अब जमाने ने बदलाव लिया है। और इस बदलाव में यह सामने आया कि भारत के गांवों से अब ग्रामीण निकलकर शहरों की ओर भाग रहे हैं। सिर्फ सिर्फ और सिर्फ धनवान बनने के लिए। धनवान बनने के लिए आज का युवा जहां फितूरबाज हो गया है, चोरी करने के नए नए बहाने सीख गया है और तो और वो सारे काम सीख गया है जिसे कोई हैवान ही अंजाम दे सकता है। अब तो जरूरत है ऐसे सांस्कृतिक मूल्यो के निर्वहन की जिसे सही तरीके से अमली जामा पहनाने की। युवाओं में जो भटकाव की दिशा आई है उसे अपने मूल्यों को समझने की। नहीं तो वह दिन दूर नहीं होगा जब पूरी दुनिया में रुपया के लिए त्राही त्राही मचेगी।

Saturday, November 21, 2009

अपनी बौखलाहट जाहिर करने का यही तरीका है

यह अभी पक्का नहीं है कि आईबीएन के दफ्तर पर शिवसेना का हमला, पिछले विधानसभा चुनाव में जनता द्वारा उसको चौथे नंबर पर खदेड़ दिए जाने की भड़ास है या दो साल बाद आनेवाले महानगर पालिका चुनाव की अभी से तैयारी। लेकिन इतना जरूर है कि शिवसेना का अपनी बौखलाहट जाहिर करने का यही तरीका है और राजनीति में अपने नए रास्तों का निर्माण भी वह इसी तरीके से किया करती है। सबने देखा है कि उसके पास मार-पीट के अलावा राजनीति में कोई मजबूत रास्ता नहीं है।
शिवसेना का इतिहास भी यही है। मारो-पीटो और राज करो। यही वजह है कि शिवसेना के सांसद और उसके मुखपत्र ‘सामना’ के संपादक संजय राऊत खुलकर कह रहे थे कि शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे के बारे में किसी भी तरह के सच का यही अंजाम होगा। मुंबई में आईबीएन लोकमत और आईबीएन7 के दफ्तर पर हमले के साथ पुणे में आईबीएन टीवी-18 की ओबी वैन पर हमले के बाद राऊत ने जो कुछ कहा उसका मतलब यही है कि शिवसेना और उसके मुखिया मुखिया बाल ठाकरे के बारे में किसी भी किस्म का सच बोलने वाले का यही हश्र होगा।वे अचानक आए। सबसे पहले रिशेप्शन को तोड़ा। फिर दफ्तर में घुसे और तहस – नहस कर डाला पूरे ऑफिस को। धूमधड़ाके की आवाज आई। तो, केंटीन में बैठे आईबीएन लोकमत के संपादक निखिल वागले वहां पहुचे। देखा कि शिवसैनिक पत्रकारों को मार रहे हैं। वे आगे बढ़े। तो शिवसैनिक उन पर भी पिल पड़े। वैसे वागले का शिवसेना से इस तरह का रिश्ता कोई पहली बार नहीं जुड़ा है। सन् 1991 में वागले और उनके अखबार महानगर पर शिवसैनिकों ने पहली बार हमला किया था। और उसके बाद तो, वागले जब - तब उनके शिकार होते रहे हैं। उस दिन प्रभाष जोशी को श्रद्धांजलि देने आए तो यूं ही बातचीत में उद्धव ठाकरे का उल्लेख करते हुए वागले ने अपने से कहा था कि जीवन में रिश्ते बदलते रहते हैं। आजकल उद्धव ठाकरे हमारे दोस्त हैं। लेकिन वे जब यह कह रहे थे, तो उन्हें ही नहीं, अपने को भी अंदाज नहीं था कि सिर्फ पंद्रह दिनों के भीतर ही ये रिश्ते फिर वैसे ही हो जाएंगे। दरअसल, आम आदमी के दिल में शिवसेना की जो तस्वीर है, वह राजनीतिक दल के रूप में कम और मार-पीट और तोड़फोड़ करने वाले संगठन के रूप में ज्यादा है, यह सबसे बड़ा सच है। शिवसेना आज सबसे मुश्किल दौर में है। कहीं कोई रास्ता नहीं दिख रहा। कोई आस भी नहीं। 43 साल के अपने राजनीतिक जीवन में शिवसेना इतनी कमजोर कभी नजर नहीं आई। उसके मुखिया बाल ठाकरे बूढ़े हो चले हैं। वे अब कुछ भी करने की हालत में नहीं है। महाराष्ट्र की राजनीति में कभी चमत्कार रचने वाले ठाकरे पिछले विधान सभा चुनाव में खुद किसी चमत्कार की आस लगाकर बैठे थे। लेकिन राजनीति में उनके उत्तराधिकारी बेटे उद्धव ठाकरे की ताकत भी नप गई। पार्टी की आधी ताकत वैसे भी भतीजे राज ठाकरे ने हड़प ली है। जहां वह कभी बहुत ज्यादा ताकतवर थी, वहां राज की पार्टी ने शिवसेना को पिछले चुनाव में कुछ ज्यादा ही चोट पहुंचा डाली। अब शिवसेना के पास इसका कोई इलाज भी नहीं है। यह हताशा का दौर है।महाराष्ट्र की राजनीतिक धड़कनों को जानने वाले मानते हैं कि मराठी माणुस और मराठी अस्मिता के नारे देकर तीन दशक की लगातार मेहनत से पंद्रह साल पहले एक बार सत्ता में आने के बाद, इस बार लगातार तीसरी बार शिवसेना को मराठियों ने ही ठुकरा दिया। लेकिन, राज ठाकरे का उदय अच्छे से हो गया। जो कि होना ही था। लेकिन सिर्फ यही सच नहीं है। सच यह भी है कि बाल ठाकरे की पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं की काम करने की यह शैली है। जिनको शिवसैनिक कहा जाता है, वे कब गुंडई पर उतर जाएं, यह कहा नहीं जा सकता। और फिर मीडिया पर हमला, वैसे भी शिवसेना की पुरानी आदत रही है। उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि वहां प्रचार अच्छा मिलता है। खूब चर्चा होती है। भरपूर फायदा मिलता है। आप सारा पुराना हिसाब किताब निकाल कर देख लीजिए, ऐसा कभी नहीं हुआ कि शिवसेना के किसी हमले को नजरअंदाज किया गया हो। हर हमले ने ध्यान खींचा है। और हर हमले का शिवसेना ने जमकर राजनीतिक लाभ उठाया है। इसलिए, भले ही शिवसेना आज हताशा के दौर में है। लेकिन अपना मानना है कि सिर्फ ऐसा कतई नहीं मानना लेना चाहिए कि आईबीएन के दफ्तर पर शिवसेना का यह हमला कोई हताशा में उठाया कदम है। कोई भी राजनीतिक दल इस कदर हताश नहीं होता कि वह सिर्फ हमले ही करे। राजनीतिक परिदृश्य में लगातार बने रहने की यह एक सोची समझी रणनीति है, जिसके मूल को समझना जरूरी है। जैसे ही हमला हुआ, शिवसेना के प्रवक्ता संजय राऊत ने मीडिया को बुलाकर फट से हमले की जिम्मेदारी ली। कहा कि यह हमला हमारे कार्यकर्ताओं ने ही किया है। राऊत ने कहा कि आईबीएन पर पिछले कुछ दिनों से शिवसेना और उनके बाला साहेब के बारे में लगातार ऐसा कुछ दिखाया जा रहा था, जिसका जवाब यही हो सकता था। हम भी मीडिया वाले हैं। लेकिन मीडिया को उसकी औकात में रहना चाहिए। मैं मीडिया का आदमी हूं। बाला साहेब भी संपादक हैं। हम लोग यह जानते हैं कि क्या करना चाहिए, और क्या नहीं करना चाहिए। संजय राउत ने जो कुछ कहा, वह सरासर गलत है। जब, आप इतने जिम्मेदार हैं कि क्या करना चाहिए, और क्या नहीं करना चाहिए, यह आपको पता है। तो मतलब, शिवसेना ने आईबीएन में जो तोड़फोड़ और पत्रकारों के साथ जो मारपीट की वह सही है। पर, सबके सामने नहीं, लेकिन अकेले में दिल पर हाथ रखवाकर आप अगर संजय राऊत से यह सवाल करेंगे, तो वे कभी नहीं कहेंगे कि जो हुआ, वह सही है। ऐसा इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि अपन उनको 20 साल से बहुत करीब से जानते हैं। संजय राऊत लोकसत्ता में थे और अपन जनसत्ता में। आस – पास ही बैठते थे। वे मूलत: राजनेता नहीं, पत्रकार हैं। सो, दावे के साथ कह सकते हैं कि सामना की संपादकी, बाल ठाकरे की नजदीकियों और राज्य सभा की एक अदद कुर्सी ने उनके उनके हाथ बांध दिए हैं। साथ ही कलम के साथ जुबान भी उनने शिवसेना को सोंप रखे हैं। उनकी जगह कोई भी होगा, तो यही बोलेगा, जो राऊत ने कहा। लेकिन जो भी हुआ, उसे शिवसेना की गुंडागर्दी को अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।ऐसा पहले भी होता रहा है। आज भी हुआ है। और आगे भी होता रहेगा। शिवसैनिकों को किसी का कोई डर नहीं है। सरकार का भी नहीं। उनको भरोसा है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। बीसियों बार हमले किए, तोड़फोड़ की। कभी कुछ नहीं बिगड़ा, तो अब कैसे बिगड़ेगा। क्योंकि सरकारों की भी अपना काम निकालने और हमारा ध्यान भटकाने की मजबूरियां होती हैं हूजूर। ऐसे कामों के लिए सरकारें शिवसेना और राज ठाकरे की पार्टी जैसे संगठनों का उपयोग करती रही है। विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने शिवसेना की ताकत को रोकने के लिए राज ठाकरे का उपयोग किया। लेकिन, अपना पाला सांप जब अपने को ही काटने लगे तो उसका भी मजबूत इंतजाम करना पड़ता है। सो, अब, आगे महानगर पालिका के चुनाव में राज की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए कांग्रेस को शिवसेना को हथियार के रूप में काम में लेना है। ताकि आपस में लड़ते रहें और अपना काम निकल जाए। इसमें शिवसेना को भी मजा आना तय है, क्योंकि अब उसके लिए दुश्मन नंबर वन राज ठाकरे हैं। सो, मानते तो आप भी है कि सरकार को कड़ी कारवाई करनी चाहिए। पर, लगता नहीं कि सरकार ऐसा कुछ करेगी, जिससे शिवसेना को कोई बड़ा नुकसान हो। पुण्य प्रसून वाजपेयी इसीलिए दावे के साथ कह रहे थे – ‘सरकार को कुछ करना चाहिए। लेकिन करेगी नहीं, यह पक्का है।‘ आप भी ऐसा ही मानते होंगे !

Sunday, October 11, 2009

सब जुगाड़ का कमाल है

अटल राज में जुगाड़ का चुटकुला बड़ा मशहूर हुआ था। बिल गेट्स ने अपने नुमाइंदे भारत भेजे। कंप्यूटर लेकर नुमाइंदा गांव में जा रहा था। पर रास्ते में गाड़ी दगा दे गई। दूर-दूर तक मैकेनिक नहीं मिला। तो गांव वालों ने थोड़ी कसरत के बाद जुगाड़ से गाड़ी स्टार्ट कर दी। नुमाइंदा कंप्यूटर लेकर गांव पहुंचा। तो कंप्यूटर चला ही नहीं। सो वहां भी गांव के थोड़े पढ़े-लिखे लड़कों ने जुगाड़ से चला दिया। अब जुगाड़ के सहारे इतना कुछ हुआ। तो बात तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंलटन तक पहुंच गई।
सो भौंचक बिल ने वाजपेयी को फोन घुमाया। जुगाड़ टैक्नोलॉजी का राज पूछा। तो वाजपेयी ठहाके लगाकर हंस पड़े। बिल को बताया, यही तो है, जो मेरी सरकार चला रही है। पर यह तो चुटकुला था। अब तो सही मायने में जुगाड़ का जादू दुनिया भर में। तभी तो महज नौ महीने में बराक ओबामा को शांति का नोबल मिल गया। यों जमीन पर ओबामा की पहल का कोई असर तो नहीं दिखा। पर प्राइज कमेटी की दलील सुनिए। ओबामा ने दुनिया भर में बेहतर माहौल बनाया। कूटनीति के क्षेत्र में असाधारण प्रयास किए। परमाणु अप्रसार के लिए पहल की। पर ऐसी जुबानी पहल से नोबल मिलने लगे। तो अपने भारत के बुद्धिजीवियों को हर साल नोबल मिलना चाहिए।
पर दुनिया जुगाड़ से चल रही है। सो जिसकी लाठी, उसकी भैंस। तभी तो अमेरिकी शह पर पाकिस्तान उछल रहा है। आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई का कोई इरादा नहीं दिखता। अमेरिकी मदद तो दिल खोलकर मिल रही। भले उस पैसे का इस्तेमाल भारत के खिलाफ ही क्यों न हो। हाल ही में ओबामा ने अमेरिकी कांग्रेस से भारी-भरकम मदद मंजूर करवा दी। वह भी तब, जब खुद परवेज मुशर्रफ कबूल कर चुके। अमेरिकी मदद का भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया था। यानी पाक पर अमेरिकी वरदहस्त। सो अब तक 26/11 के दोषियों पर कार्रवाई नहीं हुई। अमेरिका अपनी बादशाहत कायम रखने को जुगाड़बाजी में लगा हुआ। उधर पड़ोसी चीन नेपाल के रास्ते माओवाद का झंडा गाड़ने के जुगाड़ में। माओवादी पशुपति नाथ से तिरुपति तक रेड कॉरीडोर बना चुके। अब तो महाराष्ट्र और एनसीआर भी नक्सलियों का आरामगाह बन गया। गढ़चिरौली में 18 पुलिस कर्मियों की नक्सलियों ने घेरकर हत्या कर दी। पर कोई मानवाधिकारवादी नहीं बोला। पढ़े-लिखे कोबाड गांधी जैसे माओवादी पकड़े जाएं। तो मानवाधिकार का झंडा फौरन बुलंद हो जाता। पर क्या अपनी सुरक्षा में लगे पुलिस वालों का कोई मानवाधिकार नहीं? क्या कसूर था गढ़चिरौली के उन 18 पुलिस वालों का। सनद रहे, सो याद कराते जाएं। नेपाली माओवादी प्रचंड पीएम बन सितंबर 2008 में भारत दौरे पर आए थे। तो एक इंटरव्यू में उनने जो कहा, उसका लब्बोलुवाब देखिए- "आने वाला वक्त माओवादियों का होगा। एशिया में एक दिन यही झंडा फहराएगा।"
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इंटरव्यू लेने वाले पत्रकार को हंसी आई। तो प्रचंड ने चेतावनी के अंदाज में कहा, हंसिए मत। आने वाले 10-15 साल में एशिया पर माओवादियों का राज होगा। यही हकीकत है। यानी चीन ने नेपाल को अपनी गिरफ्त में ले लिया। सो नेपाल के रास्ते नक्सलवाद भारत में सिरदर्द बन गया। नक्सलियों को साज-ओ-सामान चीन से मिल रहा। तो भारत में कुछ ऐसे बुद्धिजीवी भी, जो ऐसे लोगों को पनाह दे रहे। विचारधारा के नाम पर पथ से भटके लोग व्यवस्था को चुनौती दे रहे। कोबाड गांधी पकड़े गए। तो एक समर्थक ने क्या कहा, मालूम है? बोले- "वाह री सरकार, कोबाद को पकड़ लिया, क्वात्रोची को छोड़ दिया।" यों भावना सही। पर ड्यूटी निभा रहे सुरक्षा बलों का क्या कसूर?
अब केंद्र सरकार सख्ती दिखा रही। नक्सलियों से निपटने के लिए एयर फोर्स या आर्मी के इस्तेमाल पर विचार कर रही। तो अपने लेफ्टिए खड़े हो गए। ए.बी. वर्धन ने फौरन एतराज जता दिया। पर सरकार पानी सिर से निकलने के बाद ही क्यों जागती? अपनी सुरक्षा बल के जवानों के पास उम्दा हथियार नहीं। तो न ही माओवादियों से लड़ने का तरीका। माओवादी पढ़े-लिखे, सो नई रणनीति तैयार कर लेते। पर अपनी रणनीति कैसी, खुद होम सैक्रेट्री की जुबां से सुनिए। शुक्रवार को एक समारोह में जी.के. पिल्लई ने जुगाड़ पर जोर दिया। हथियारों की खरीद में तीन से पांच साल की लंबी प्रक्रिया का रोना रोया। जब तक अपने जवानों के पास खरीदे गए हथियार पहुंचते। बाजार में उससे उम्दा किस्म पहुंच जाती। सो पिल्लई ने खरीद की नीति बदलने पर जोर दिया। तो साथ में जुगाड़ प्रणाली की भी पैरवी की। उन ने माना, सरकार और सुरक्षा बल भी तकनीकी ज्ञान से अनजान। पर यह कैसी व्यवस्था, जो सुरक्षा भी जुगाड़ के सहारे। जुगाड़ से सरकारें बनती रहतीं। अब महाराष्ट्र में वोट भी नहीं पड़े। पर जुगाड़ तंत्र शुरू हो गया। कांग्रेस ने कहा- क्वराज ठाकरे की मदद नहीं चाहिए।ं पर देखो, कांग्रेस ने यह नहीं कहा, मदद नहीं लेगी। अब जुगाड़ से सरकार बन रही। तो उसका हश्र भी दिख रहा। झारखंड में मधु कोड़ा निर्दलीय एमएलए होकर जुगाड़ से सीएम हो गए। अब कुर्सी नहीं रही। तो घोटाला सामने आया। कोड़ा और उनकी सरकार के दो मंत्रियों पर नकेल कसने लगी। सबने सभा में खूब चांदी काटी। बाकी का जीवन आराम से गुजरे, सो पैसा हांगकांग, थाईलैंड जाकर निवेश कर आए। अब मनी लांडरिंग निरोधक एक्ट के तहत केस दर्ज हो गया। वाकई जुगाड़ है ही कमाल की चीज।

Thursday, August 27, 2009

जिहाद सिर्फ कश्मीर तक सीमित नहीं है

पाकिस्तान बनने के बाद वहां एक आम मान्यता रही थी कि भारत एक कमजोर देश होगा क्योंकि हैदराबाद में निजाम का राज है और द्रविड़ लोग अपना अलग द्रविड़िस्तान बना लेंगे। अलगाववाद को प्रोत्साहन देते हुए मुहम्मद अली जिन्ना सवर्ण हिंदुओं के प्रति तिरस्कारपूर्वक बोलते थे। इस तरह जिन्ना का लक्ष्य, भारत के प्रति, हाफिज मोहम्मद सईद के इरादों से कुछ अलग नहीं था।

३ नवंबर, २००० को जमात-उद-दवा (पूर्व में लश्कर-ए-तैयबा) के मुख्यालय पर एकत्रित हजारों जेहादियों की भीड़ के सामने गरजते हुए आमिर-ए-लश्कर हाफिज मोहम्मद सईद ने कहा था, "जिहाद सिर्फ कश्मीर तक सीमित नहीं है। पंद्रह साल पहले अगर कोई सोवियत संघ के टुकड़े होने की बात कहता था तो लोग उस पर हंसते थे। इंशाअल्लाह, आज मैं भारत के टूटने की घोषणा करता हूं। हम तब तक चैन नहीं लेंगे, जब तक कि सारा हिंदुस्तान, पाकिस्तान में समा नहीं जाता।" पिछले दो दशकों से सईद खुलेआम जंग की ऐसी घोषणा कर रहा है कि जैसे उसके जरिए सारे भारत को लील जाएगा। मुंबई में हुए २६/११ के हमले तक किसी ने उसे गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन भारत को तोड़ने की हाफिज की मुहिम नौ साल से जारी है । ३ नवंबर-२००० में दिए इस भाषण के तुरंत बाद सईद ने देश के दिल में स्थित ऐतिहासिक लाल किले पर हमला करने अपने मुजाहिदीन भेजे, तारीख थी २२ दिसंबर २०००। इस हमले के बाद इस्लामी पार्टियों के राजनेताओं के सामने सईद ने छाती ठोंक कर कहा कि उसने दिल्ली के लाल किले पर इस्लाम का हरा झंडा फहरा दिया है।

हाफिज मोहम्मद सईद न कभी एक साधारण आदमी था, न अब है। उसे पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की सरपरस्ती भी हासिल थी। गौरतलब है कि १९९८ में पंजाब के गवर्नर शाहिद हमीद और सूचना मंत्री मुशाहिद हुसैन सैयद को खुद हाफिज से बात करने और आभार जताने के लिए भेजा था। क्यों न हो? आखिरकार सईद द्वारा पाले-पोसे वहाबी/सलाफी इस्लामी स्कूल को नवाज शरीफ के वालिद मियां मोहम्मद शरीफ का संरक्षण (तबलीगी जमात के जरिए) हासिल था। इसके अलावा जमीनी स्तर पर लश्कर का करीबी रिश्ता पाकिस्तानी आर्मी तथा आईएसआई के साथ भी है, जो कि चरमपंथी गुटों को हथियार, प्रशिक्षण और सैन्य सहायता देते हैं। किंतु भारत के टुकड़े करने संबंधी सईद के बयान क्या सिर्फ उसकी अपनी सोच है या उसके इस वक्तव्य में पाकिस्तान और विशेषकर पाकिस्तानी सेना की व्यापक रणनीति उजागर होती है? उस रणनीति से पाकिस्तान के हुक्मरान भी नावाकिफ या अलग नहीं हो सकते। चाहे वे फौजी शासक हों या वोट से चुनकर आए प्रतिनिधि हों।

पाकिस्तान का विचार सबसे पहले चौधरी रहमत अली ने १९३३ में प्रकट किया था जिसने आकार ग्रहण किया १९४४ में मुस्लिम लीग के लाहौर प्रस्ताव में। पाकिस्तान बनने के बाद वहां एक आम मान्यता रही थी कि भारत एक कमजोर देश होगा क्योंकि हैदराबाद में निजाम का राज है और द्रविड़ लोग अपना अलग द्रविड़िस्तान बना लेंगे। अलगाववाद को प्रोत्साहन देते हुए मुहम्मद अली जिन्ना सवर्ण हिंदुओं के प्रति तिरस्कारपूर्वक बोलते थे। वे इस बात पर जोर देते थे कि दक्षिण भारत के लोगों की भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज और पहचान अलग-अलग हैं और उनकी पहचान शेष भारत से भिन्न है।

दूसरी ओर महात्मा गांधी ने बाबा साहेब अंबेडकर जैसे नेताओं के साथ मिलकर दलितों के प्रति सदियों से हो रहे अन्याय व शोषण के खिलाफ आवाज उठाई, तब भी जिन्ना ने दलितों को अलग करने की ओछी कोशिश की। उन्होंने तो जोधपुर एवं त्रावणकोर-कोचीन जैसी रियासतों को भी अपने आपको स्वतंत्र घोषित करने के लिए उकसाया था। उनका लक्ष्य स्पष्ट था - भारत के छोटे छोटे टुकड़े कर दो ताकि उपमहाद्वीप में मुस्लिम राज्य का दबदबा रहे। १९४६ के कैबिनेट मिशन प्लान के अनुसार जिन्ना की सोच यह थी कि दस साल के भीतर पश्चिम से संयुक्त पंजाब व सिंध तथा पूर्व से बंगाल व असम कमजोर भारत से टूटकर अलग हो जाएंगे। अंग्रेजों के साथ जिन्ना का भी मानना था कि भारत के केंद्र में एक कमजोर सरकार है जो देश के विभिन्न हिस्सों को मजबूती से थामे रखने में अक्षम है। इस तरह जिन्ना का लक्ष्य, भारत के प्रति, हाफिज़ मोहम्मद सईद के इरादों से कुछ अलग नहीं था। हालांकि जिन्ना वस्तुतः अनीश्वरवादी इस्माइली थे जबकि सईद वहाबी मंसूबों का पक्षधर है।

लियाकत अली खान से लेकर जनरल परवेज मुशर्रफ तक जिन्ना के वारिसों ने भारत से अपने रिश्तों को इसी सोच के आधार पर बनाए रखा कि भारत एक कमजोर देश है। १९६५ में फील्ड मार्शल अयूब खान ने यही सोच कर भारत पर हमला किया कि प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री एक कमजोर नेता हैं जोकि गंभीर अलगाववाद से जूझ रहे हैं। ये समस्याएं थीं पंजाब में पंजाबी सूबा आंदोलन, द्रविड़ पार्टियों द्वारा दक्षिण में हिंदी विरोधी दंगे तथा उत्तर-पूर्व में लगातार चलती दिक्कतें। लेकिन हिंदुस्तानियों की एकता के सामने पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी। जनरल जिया-उल-हक ने भारत में अलगाववाद को भड़काने के लिए एक विस्तृत नेटवर्क बनाया और पंजाब में हिंदू-सिख विभाजन का षड्यंत्र रचा। यह साजिश नाकाम सिद्ध हुई क्योंकि हिंदू और सिख दोनों ही पाकिस्तान की मंशा को समय रहते ताड़ गए थे। लेकिन जम्मू- कश्मीर में पाकिस्तानी आईएसआई की कोशिशें जारी हैं। इसलिए यह बात हैरान करती है जब कोई भारतीय जिन्ना के दिलोदिमाग के गुणों की स्तुति करता है। सिर्फ इसलिए कि वे कभी धर्मनिरपेक्ष हुआ करते थे, उन्हें इस इल्जाम से बरी नहीं किया जा सकता कि मजहबी आधार पर देश के बंटवारे और कत्लेआम के लिए जिन्ना की जिम्मेदारी बनती है।

पूर्व राजनयिक नरेंद्र सिंह सरिला ने बहुत सतर्कतापूर्वक एक किताब लिखी है "द शैडो ऑफ द ग्रेट गेम-द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ पार्टीशन" जिसमें उन्हें खुलासा किया है कि मई १९४६ में कैबिनेट मिशन के भारत आने से पहले, एक के बाद एक आए ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो तथा लॉर्ड वेवैल पहले ही फैसला कर चुके थे कि भारत का बंटवारा करके उत्तर-पश्चिम में एक मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना की जाए जिसकी सीमाएं ईरान, अफगानिस्तान और चीन से लगती हों. यह इसलिए था क्योंकि इस इलाके में तेल पर ब्रिटेन अपने दावों को मजबूत करना चाहता था. 1939 में जिन्ना ने इस ब्रिटिश इरादे को जिन्ना ने पूरा करने में योगदान दिया. आखिरकार 1947 में जिन्ना ऐसे पाकिस्तान की रचना करने में सफल रहे जो आगे चलकर दुनियाभर के आतंकवाद का केन्द्र बन गया